29 January 2014

अनकही


 
इस रात की सन्नाहट,
मुझे  मेरी साँसों से रफ्ता कराती है |
समय की चकरी, और धीरे, और धीरे;
 मेरे मन को घेरे जाती है ||  

मेरे सपने, मेरे विचार;
सबका चिंतन लेता है एक आकार  | 
पर ठहर जाता हूँ;
उन बातों पर, जो मैंने ना कही;
और किसी ने ना सुनी || 

कुछ संगीन, कुछ रंगीन
कुछ बद्तमीज़ और कुछ कवि |
अनकही ना है ये शब्दो की,
पर इरादो की ||

जाना है, जीवन है शुन्य
और धीरे धीरे, समय की चकरी | 
बनाती इसे शून्य ||

अपने मन की अनकही,
को चीखो, चिल्लाओ |
 क्योंकि रात की सन्नाहट में ,
कहा अवश्य गूँजेगा ||

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